भगवान शंकराचार्य ने धर्म प्रचार के निमित वेदोक्त चार महाकाव्यों को अवलम्बन बनाकर भारतवर्ष के चार कोने पर चार बड़े मठों की स्थापना की। वहां उन्होंने चार प्रधान शिष्यों को आचार्य नियुक्त किया। शंकराचार्य ने अपनी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए प्रत्येक मठ को उन्होंने अपना स्वतंत्र क्षेत्र, देव, देवी, तीर्थ, वेद और महावाक्य का निर्देश दिया।
उत्तर में ज्योर्तिमठः क्षेत्र- बदरिकाश्रम, देव-नारायण, देवी-पुन्नगिरी, तीर्थ-अलकनन्दा, वेद-अथर्व, महावाक्य-आयामात्मा ब्रह्म।
दक्षिण में श्रृंगेरी मठः क्षेत्र- पुरी, देव-जगन्नाथ, देवी-विमला, तीर्थ-महोदधि, वेद-ऋक्, महावाक्य-प्रज्ञानं ब्रह्म।
पश्चिम में शारदा मठः क्षेत्र-द्वारका, देव-सिद्धेश्वर, देवी-भद्रकाली, तीर्थ-गंगा व गोमती, वेद-साम, महावाक्य-तत्त्वमसि।
आदि शंकराचार्य ने चारों धामों पर एक-एक शिष्य-विश्वरूपाचार्य, पद्मपादचार्य, त्रोटकाचार्य एवं पृथ्वीधराचार्य को नियुक्त किया। मठ के प्रधान चार आचार्यों में विश्वरूपाचार्य ने तीर्थ तथा आश्रम नामक दो शिष्य, पद्मपादाचार्य ने वन और अरण्य नामक दो शिष्य, त्रोटकाचार्य ने गिर, पर्वत, सागर नामक तीन शिष्य, तथा पृथ्वीधराचार्य ने सरस्वती, भारती, पुरी नामक तीन शिष्य सब मिलाकर इस समुदाय में शिष्यों द्वारा दस सम्प्रदाय बनें।
आजकल तीर्थ स्थानों में, वन-जंगलों में, पहाड़ो-पर्वतों में, गांव-शहरों में, देश-विदेशों में जो गेरूवाधारी संन्यासी दिखाई पड़ते हैं, वे सभी आदि शंकराचार्य की ही अपार महिमा को घोषित करते हुए, उनकी कीर्ति का परिचय दे रहे हैं। उसका पूर्व ऐसा नियम था, कि जीवन के प्रथम तीन भाग पूर्ण करने के बाद जीवन के अंतिम भाग में सन्यांस आश्रम का अवलम्बन किया जा सकता था। किन्तु शंकराचार्य ने यह व्यवस्था दी, कि यथार्थ वैराग्य होने पर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी आश्रम का ही क्यों न हो, तत्काल संन्यास ग्रहण कर सकता है।
ये संन्यासी प्रधानतः दो श्रेणियों में विभक्त हैं- एक दण्डीस्वामी और दूसरा परमहंस। प्रथम अवस्था में दण्डीस्वामी बनकर ब्रह्मज्ञान का विचार करें, फिर ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि होने पर परमहंस बनकर लोक शिक्षा, शास्त्र व्याख्या तथा जगत कल्याण में अपने को नियुक्त करें। ये संन्यासी हिन्दू समाज के सब सम्प्रदायों के गुरू माने जाते हैं।
ऐसा इसलिये क्योंकि सभी सम्प्रदायों में वेद वेदान्त तथा पुराणों को सर्वोच्च प्रधानता दी जाती है और वे उन्हीं के नियमों व सूत्रों द्वारा परिचालित होते है, जो वेदव्यास द्वारा लिखित हैं। अतएव वेदव्यास हिन्दू समाज के सर्वसम्मत गुरू है। शुकदेवाचार्य उनके पुत्र व शिष्य हुए, उनके शिष्य हुए गौड़पादाचार्य और उनके शिष्य हुए गोविन्दापादाचार्य, उनके शिष्य हुए शंकराचार्य और वर्तमान के सभी संन्यासी सम्प्रदाय शिष्य-प्रशिष्य हैं।
जो सक्षम गुरू होते है, सद्गुरू होते है, वे अपने ज्ञान का विस्तार केवल अपने जीवनकाल तक ही सीमित नहीं रखते, अपितु आने वाले सैकड़ो हजारों वर्षो का उन पर उत्तरदायित्व होता है। पूज्यपाद शंकराचार्य जैसे अत्यन्त उच्चकोटि के परमहंस दो हजार वर्षो में मात्र एक बार ही पृथ्वी पर अवतरित होते है, परन्तु अपने लीला काल में ही वे आने वाले सैकड़ो पीढ़ियों के लिये एक सुनिश्चित अध्यात्म पथ प्रशस्त कर जाते हैं और यह ज्ञान कोई पुस्तकीय ज्ञान नहीं होता, यह ज्ञान कोई ग्रंथों में नहीं लिखा होता, क्योंकि पुस्तकों के मृत पृष्ठों पर अंकित ज्ञान से जीवन में प्राण नहीं डाले जा सकते।
प्राण का संचार तो जीवित-जाग्रत चैतन्य गुरू ही कर सकते है। सद्गुरू के ये लक्षण होते हैं, कि वे अपने जीवन काल में ही अपने शिष्यों में से किसी को अपना स्थान प्रदान कर दें, अपने समान बना दें, जिससे आने वाला समय मात्र सद्गुरू की मन्दिरों में रखी तस्वीरों की आरती ही न उतारे, अपितु उनके ज्ञान का साक्षात लाभ उन्हीं सद्गुरूदेव की परम्परा के वर्तमान गुरूओं से प्राप्त करें। यही सद्गुरू की दूरदृष्टि होती है।
एक ही परम्परा के गुरूओं का सीधा सम्पर्क परम्परा के पर्व द्वारा गुरू से हमेशा और निरन्तर बना ही रहता है, इसलिये जो चिन्तन आदि गुरू ने प्रतिपादित किया है, वह चिन्तन, वह ज्ञान मूल रूप में बिना परिवर्तन हुये, बिना विकृत हुए वैसे का वैसा ही गुरू परम्परा के बाद गुरूओं में उतर जाता है।
यही कारण है, कि तिब्बत के लामाओं के पास आज भी अद्भूत विधाएं सुरक्षित है, आज भी दलाई लामा (प्रधान लामा) शरीर छोड़ने से पूर्व अगले दलाई लामा कौन होगा, वह बालक कहां मिलेगा, कैसे मिलेगा, किस स्थान पर मिलेगा, आदि की सूचना देकर ही जाते हैं। सिक्ख धर्म में भी गुरू नानक के बाद कालान्तर में नौ गुरू और हुए और इस गुरू परम्परा ने सिक्ख धर्म को भारत में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित कर एक ऐसे सशक्त धर्म को दिया जिसके अनुयायी आज भारतीय समाज में उच्च स्तर का जीवन जी रहे है। यदि सिक्ख धर्म में आज सम्पन्नता है, तो उसके पीछे दस गुरूओं की तेजस्विता गुरू परम्परा का आधार ही है।
नाथ योगियों की गुरू परम्परा में भी अनेक सिद्ध योगी गुरू हुए, जिनके प्रताप से आज भी साबर मंत्र जीवित हैं और आज भी नाथ योगियों की असाधारण शक्ति यदा कदा देखने को मिल जाती है।
जब मंत्र, तंत्र साधना, ज्योतिष आदि को मात्र कल्पना जगत की ही वस्तु मान लिया गया था, तब सद्गुरूदेव ने अवतरित होकर जिस नवीन गुरू परम्परा का आरम्भ किया है वह गुरू परम्परा निश्चय ही निकट भविष्य में पूरे विश्व से अंधकार को उखाड़ फेंकेगी। जीवन के प्रारम्भ में सद्गुरूदेव ने जो संकल्प लिया था वह संकल्प आज लाखों-लाखों शिष्य निभा रहें है। प्रत्येक शिष्य सद्गुरू का एक बिम्ब ही तो है।
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