अथर्ववेद में एक मंत्र है- ‘शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर।’ अर्थात् हे दो हाथों वाले (मनुष्य)! तू सौ हाथों वाला बनकर कृषि, व्यापार, उद्योगों, पशु पालन इत्यादि से प्रचुर धन-ऐश्वर्यों को प्राप्त कर और हजार हाथों वाला होकर समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिये अभावग्रस्त, निर्धन एवं पीड़ितों की सहायता कर। इस प्रकार हमारे शास्त्रों का निर्देश है कि मनुष्य को सदैव दुःखी लोगों के कष्टों को दूर करने हेतु तत्पर रहना चाहिये। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर विराजमान है, इसलिये सबकी सेवा करना ही भगवान की सेवा है। यजुर्वेद में भी कहा गया है- ‘भूताय त्वा नरातये’ अर्थात् हे मनुष्य! तुम्हें प्राणियों की सेवा के लिये पैदा किया गया है, दुःख देने के लिये नहीं। पीड़ित लोगों की सेवा करना, उनको सुख पहुँचाना ही मनुष्य का प्रथम धर्म है। इसी भावना के अनुसार आचरण करना ही नर सेवा-नारायण सेवा है।
कहा गया है- ‘कामये दुःखतप्तानां प्राणिना-मार्तिनाशनम्’ अर्थात् दुःखी एवं सन्तप्त प्राणियों की पीड़ा का शमन करना ही वास्तविक सेवा है।
प्रायः सभी धर्मों में दुःखी, पीड़ित, रोगी, असहाय, विकलांग, निर्धन, वृद्धजनों की सेवा करना परम कर्तव्य माना गया है। पर्वों और विशेष अवसरों पर निष्काम भावना से प्रेरित होकर सेवा करना अथवा सुख पहुँचाना आवश्यक माना जाता है। इसे ही परोपकार, परहित और परसेवा कहा गया है। यह सेवा भी भगवान की पूजा है।
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।
अर्थात् जिस मनुष्य में दया, परोपकार की भावना, ममता, उदारता और सेवा करने की इच्छा नहीं है, वह तो साक्षात् पशु के समान है। मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह केवल अपने स्वार्थ के लिये ही न सोचे, अपितु परहित के लिये तन-मन-धन से कार्य करे और बदले में किसी प्रकार का यश-लाभ और बड़ाई प्राप्त करने की न सोचे।
कवि श्रेष्ठ सन्त रहीम कहते हैं- ‘जो रहीम दीनहिं लखै, दीन बन्धु सम होय’। अर्थात् जो मनुष्य निर्धन-दीन असहाय लोगों की सहायता करता है, वह तो भगवान के समान है। भगवान का एक नाम दीनबन्धु है।
कष्टों में पड़े हुये लोगों की सेवा करना, उनको सुख पहुँचाना ही धर्म है। आपको भगवान ने सम्पन्नता प्रदान की है, प्रचुर धन दिया है, सभी प्रकार की सुविधाओं से युक्त बनाया है तो फिर दीन-हीन, अनाथ, रोगी, दुःखी लोगों के लिये भी दिल खोलकर सहायता करनी चाहिये। ऐसे बड़े होने से क्या लाभ, जैसे कि खजूर का पेड़-
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।
खजूर के पेड़ से राहगीर को न तो छाया मिलती है और न ही फल। हम सभी छायादार और फलदार वृक्षों के ऋणी रहते हैं। हारे-थके व्यक्ति बरगद की छाया में विश्राम करते हैं। पशु-पक्षी भी अपना डेरा डालते हैं। इसीलिये भारतीय संस्कृति में वृक्षों में जल डालना, पूजा करना और उनकी रक्षा करने को भी सेवा कहा है। सेवा का कोई भी कार्य छोटा नहीं है। प्यासे को पानी पिलाना और भूखे व्यक्ति को भोजन कराना सबसे बड़ी सेवा है। इसीलिये गर्मी के दिनों में प्याऊ और भूख से पीड़ित लोगों के लिये भण्डारे अथवा सदावर्त खोले जाते हैं। यह परम्परा सभी धर्मों में मानी जाती है।
महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय कामों का विभाजन किया जा रहा था। भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोने एवं जूठी पत्तलें उठाने का कार्य सहर्ष किया था। उन्होंने अर्जुन के रथ का सारथी बनना भी स्वीकार किया था।
महाराज युधिष्ठिर महाभारत के युद्ध में वेश बदलकर घायल लोगों की सेवा के लिये जाते थे। जब उनसे वेश बदलकर जाने का कारण पूछा गया तो उन्होने बताया कि यदि मैं वास्तविक रूप में होता तो ये पीड़ित लोग अपना कष्ट मुझे नहीं बताते। इसी कारण महाराज युधिष्ठिर को धर्मराज के रूप में शीर्ष स्थान दिया जाता है।
कहा गया है कि जो अपने-आपको बड़ा मान लेता है, वह सबसे नीचा है। उसकी अधोगति होती है और जो अपने-आपको सबसे नीचा मानता है, उसको भगवान की प्राप्ति होती है।
एक समय श्रीभरत जी ने हनुमान जी से पूछा कि तुम कौन हो? हनुमान जी ने उत्तर दिया कि मैं श्रीरघुनाथ जी के दासों का दास हूँ। हुनमान जी अपने-आपको सुग्रीव, अंगद, जाम्बवन्त का भी दास मानते हैं। हनुमान जी को दास भाव प्रिय है, सखाभाव नहीं। दास का कार्य अपने स्वामी की सेवा करना ही होता है। भगवान की सेवा में लगे रहने से हनुमान जी की पूजा सभी जगह होती है। छोटी-से-छोटी जगहों में हनुमान जी के मन्दिर मिलते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहाँ है कि सेवा के लिये उठने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होठों से अधिक पवित्र हैं। लाखों गूंगों के हृदय में ईश्वर विराजमान है। मैं इन लाखों की सेवा द्वारा ही ईश्वर की पूजा करता हूँ। महात्मा गाँधी स्वयं कोढ़ी रोगियों की सेवा करते थे।
सरदार वल्लभभाई पटेल की भी यही धारणा थी कि गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।
गौतम बुद्ध की वाणी है कि जिसे मेरी सेवा करनी है, वह पीड़ितों की सेवा करे।
सेवा के सम्बन्ध में कविवर गोपालदास नीरज की ये पंक्तियाँ बड़ी ही सशक्त है-
किसी के जख्म को मरहम दिया है गर तूने।
समझ ले तूने खुदा की बंदगी की है।।
सेवा की सच्ची भावना से युक्त व्यक्ति अपने स्वार्थ को नहीं देखता। वह अपने हितों को त्यागकर दूसरों के हितों के लिये ही कार्य करता है। बिना किसी लोभ-लालच का विचार कर परहित में कार्य करना ही सेवा है। इस प्रकार सेवा करना ही धर्म है। लेने की इच्छा छोड़कर दूसरों की सेवा करना चाहिये। दूसरों को सुख पहुँचाने से अपना सुख भी बढ़ता है।
‘तज्जीवनं यत्र परस्य सेवा’ अर्थात् जीवन वही है, जो पर सेवारत हो।
अपना भला देखना-करना स्वार्थ है और दूसरों का भला सोचना परार्थ है। वही व्यक्ति महान है, जो दूसरों की सेवा के लिये आगे रहता है।
जब हम अपने दो हाथ दूसरों की सेवा-सहायता के लिये खोलते हैं तो ईश्वर भी हजार हाथों से हमारी राह आसान कर देता है।
सेवा का संस्कार बच्चों को परिवार के वातावरण में माता-पिता के आचरण को देखकर ही मिल सकता है। परिवार में वृद्ध माता-पिता, वृद्ध परिजन और असहायों की यदि मन-वचन-कर्म से सेवा की जाती है तो उस परिवार के बच्चों में भी सेवा के संस्कार आ जाते हैं।
वृद्धों की सेवा, अभिवादन (प्रणाम-चरणस्पर्श) करना हमारी प्राचीन संस्कृति है। सेवा और सम्मान देने से वृद्धजनों के हार्दिक आशीर्वाद प्राप्त होते हैं। सेवा कभी निष्फल नहीं जाती- यह सत्य परिवार में सभी को समझना आवश्यक है। ‘मातृदेवा भव’, पितृदेवो भव’ की भावना का परिवार में सभी सदस्यों द्वारा पालन करना चाहिये, तभी हमारी भावी पीढ़ी सुसंस्कारवान और सेवाभावी बन सकेगी।
सेवा में आत्मिक सुख-शांति और आनन्द का स्त्रोत निहित है। आइये हम सब ईश्वर से प्रार्थना करें-
वह शक्ति हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर सेवा पर उपकार में हम निज जीवन सफल बना जावें।।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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